एक सर्द आह.....
अभी उस दिन की ही तो बात है...तुम आये और बोले..."चलो..."! पता नही क्यों यह शब्द आदेश से कहीं ज्यादा प्यार है...मनुहार है...स्वीकार है..! और सच मानो क्यों... कहाँ... कैसे... जैसी दुविधा कभी सुनायी ही नही दी भीतर...! "चलो..." सुनते ही पीछे छूटा कुछ याद तक नही आता...! और हर बार मेरा हाथ थाम जाने कहाँ कहाँ ले जाते हो..?
सुनो.. वो कौन सा छोर था...जहाँ अभी तुम ले गए थे..??? वो जहाँ आकाश को धरती में समाते देखा मैंने...??? वो दूर तक नीचे उतरती धरती की ऊँची नीची ढलान...और तराई में उगे पेड़ों के पत्तों की झीनी चुनरी में छिपता छिपाता आकाश...सुनो याद है ...वो उस दिन जब कुछ बहके अहोश से तुम...कुछ कहने की जिद में...अनकहे ही मेरे कंधे पे बिखरे बालों में मुंह छिपाए थे...! अब देखो यह तो बात गलत है न...या तो मुझे धरती आकाश की प्रणय लीला निरखने दो...या फिर यह अधरों छिपी अमृत धरा ही बरसने दो...! अब दो काम एक साथ कैसे करुँ मैं...???
कभी सोचा है...यह धरती की अतल गहराइयां इतनी सुनसान क्यों हैं..? देख रहे हो न...यह दूर तक नीचे धंसती उबड़ खाबड़ तराई...बिखरे सूखे पत्ते...कदम कदम पर उगे पेड़...जैसे किसी राज़ को छिपाने के लिए आवरण हों...!
सूरज भी अपनी समस्त गर्माएश को लेकर दूर तक नही उतर पाता...जैसे उसे भी भीतर आने की इजाज़त नही है...! जाने कैसी पीडाएं..कितने दर्द...कितने टीसते राज़ दफ़न हैं धरती के सीने में...! बस कुछ सर्द हवाएं ही ठंडी आह सी उभर आती हैं...कभी कभी...! उसे भी कहाँ सह पाते हैं हम ? एक सर्द झोंके की झुरझुरी हमें धूप के नन्हे टुकड़ों की तरफ धकेल देती है....और हम भूल ही जाते हैं कि इस सर्द झोंके का उदगम खोजने निकले थे..!
पता नही क्यों लगता है मुझे...इन बंद घरों के वासी धरती की पहली सर्द आह को सुनते ही घर छोड़ देते हैं...सूना कर देते हैं अपना नन्हा सा बसेरा...इस से पहले कि धरती का सूनापन अपना कहर ले कर बरसे...वो चले जाते हैं कहीं दूर...अकेली छोड़ देते हैं धरती को उसकी पीडाओं के साथ...! बहुत मन हुआ मेरा...उन गहरी अतल तराईओं में उतरने का...सोचा धरती से बस एक प्रश्न तो पूछूं....यह धधकती पीडाओं का सुनसान साम्राज्य..यह तलवार की धार सी ख़ामोशी...यह दर्द का सूखा समंदर कैसा लगता है..???
पर नही वो तो धरती है न...मुझे करीब पा कर अचानक चिहुंक उठी...अपना मखमली आँचल समेट एक बेगानी सी नज़र फैंक मुझ से किनारा कर धूप के टुकड़ों में बिखरी गर्माएश बटोरने लगी...! मन ही मन एक उदास सी मुस्कान लिए मैंने अपने कंधे पर मदहोश से तुम्हारे चेहरे को हाथों में ले पूछा...चलें....???