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शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

तरस गई तरस गई...


 
 
द्वार द्वार भटक ई 
तेरी एक झलक को 
तरस  तरस ई 
 
खाली जाम पिए हुए 
तेरा नाम लिए हुए
कहे बिना बहक ई 
सुने बिना लहक ई 
चाँद आया बेवजह 
तन मन सजाया बेवजह 
बाहों में बिखर ई 
अधरों से लिपट ई 
कतरा कतरा टूटी थी
बूंदों में सिमट ई 
तूने देखा कुछ इस तरह
तेरी हो निपट ...!  
 

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

नदी अभी जागी है



सुनो नदी अभी जागी है 
अभी तो सिराये हैं मैंने 
कुछ पूजा के फूल और
कुछ यादें पिछली रातों की
कुछ कलियाँ अपनी बातों सी
कोई कश्ती पिछली बरसातों की

सच! नदी अभी जागी है...! 
अभी तो बिखराए हैं मैंने
कुछ अहसास तूफानी लहरों से
कुछ मौन तुम्हारी बातों के...
कुछ पीले पन्ने ख्वाहिशों के 
कुछ सूखे फूल किताबों से...

हाँ ! नदी अभी जागी है
अभी तो सुनायी है मैंने 
कुछ बातें बीती रातों की 
कुछ दौड़ भाग भी दिन भर की
कुछ इठलाती खिलती ढलती सी
इक वेणी मेरे बालों की...

देखो! नदी अभी जागी है
अभी तो जगाई है मैंने 
इक आस तेरे आवन की...
कुछ टपकती गिरती बूँदें भी
वो पहले अपने सावन की...
निसिगंधा के फूलों की
कुछ महक वही मनभावन सी...
अब मान भी लो...जान भी लो 
नदी अभी जागी है...!