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शुक्रवार, 8 मई 2020

लॉक डाउन


शब्दों के संसार में सदियों से विचरण करते हुए भी मुझे याद नहीं पड़ता कि यह शब्द मैंने कहीं सुना होगा, या पढ़ा होगा। सच तो यह है कि यह शब्द अब पूरे विश्व का भाग्य विधाता बन चुका है। इसका अहसास तो शायद उस पहले दिन भी नहीं हुआ था, जब मार्च की उस 24 तारीख को इसे लागू करने की बात पूरे भारतवर्ष में चर्चा का विषय बन गई थी।
हालांकि महामारी शब्द का परिचय बड़े अलग रूप में मुझे मिला था। इतिहास की पुस्तकों में इसकी कोई भी भयावह अभिव्यक्ति लिखी मिले, परन्तु मेरे परिवार के इतिहास में महामारी का बड़ा ही त्रासक रूप मिलता है। मेरी माता जी की दादी के ज़माने में महामारी अपने खतरनाक रूप से टूटी थी। जिसमें माता जी की दादी के पति एवं सभी सन्तानें मारी गई थी सिवाय मेरे नाना जी के। जिसे उन्होंने दूर लाहौर भेज दिया था ताकि वह गाँव के सुविधा-विहीन, चिकित्सा-विहीन माहौल से बच सके। सुना है कि माता जी की दादी माँ के सात भाई थे, वे अपनी विधवा बहन की मदद को आये। उसे गाँव में कोठा (कमरे का ठेठ पंजाबी नाम) डाल कर दिया, ज़मीन भी लेकर दी ताकि वह अपना पेट पाल सके। 
सुना है उसके बाद कुछ ही समय में उसके वे सात के सात भाई भी महामारी की भेंट चढ़ गए। माता जी की दादी माँ मायूस और दुःखी तो हुई पर उसने अपना जीवन एक जलती धूनी सा साधनारत बना लिया। अलसुबह मुँह अंधेरे ही वह घर से निकल पड़ती। दिन भर खेतों में काम करती। दुपहरी में गाँव के पास बहती कूल में नहा कर घर लौटती, खाना बनाती खाती। कुछ पल आराम कर फिर शाम होते न होते खेतों को चली जाती। फिर अंधेरा होने तक वहीं काम करती और रात को घर लौट कर कुछ खाती।
पता नहीं क्यों इस लॉक डाउन में मुझे मेरी माता जी की दादी माँ बेतरह याद आती है। इस नई महामारी कोरोना का कहर दिल्ली मुम्बई देश के कई शहरों में अपना अजगर पाश डाल चुका है। मेरे शहर में भी इसकी आहट मैं साफ सुन रही हूँ, पर कुछ कर नहीं सकते । मेरे पास अपना खाली समय बिताने के लिए लाखों किताबें हैं जो अपने मूर्त अमूर्त रूप में उपलब्ध हैं।  ऑनलाइन तो जैसे पूरी दुनिया का खज़ाना है, कुछ भी पढो, कुछ भी सुनो, कुछ भी देखो। न वक्त की बंदिश, न विषय का अभाव।
सोचती हूँ मेरी उस पूर्वज दादी के पास उस कहर के समय क्या था? कैसे बीता होगा उसका समय? मेरे घर के आसपास गली मुहल्ले में काफी शोर रहता है। परन्तु फिर भी शाम ढले जब साए गहराने लगते हैं, दीवारों का सूनापन खामखाह कचोटने लगता है। देर रात खामोश सन्नाटा किसी ज़हरीले नाग सा फन फैलाए ज़हर उगलता है। पता नहीं क्यों रात को अब कुत्ते नहीं भौंकते… झींगुर तक मौन हो गए हैं। सोचती हूँ, उस पिछली सदी में दादी ने ऐसा समय कैसे जिया होगा? उसके एक मात्र कमरे की दीवारें दिए कि मद्धम सी रोशनी में कितनी अजीब लगती होंगी। कोई छोटा सा साया भी कितना लम्बा कितना भयावह लगता होगा।यहाँ तो शहर है पर उस समय उस निपट देहात में नियति की क्रूर कहर युक्त रातों में मृत्यु की आहट कैसे सुनी होगी दादी माँ ने? किसी चीज का अभाव शायद उतना नहीं खलता जितना किसी का आपके पास होकर चले जाना। सोचती हूँ दादी माँ ने तो अपना पति, पुत्र और सात भाई खोए थे। रात को उसे नींद कैसे आती होगी ?
रात के सन्नाटे मुझे मित्रवत प्रिय हैं क्योंकि इनकी निस्तब्धता मुझे हमेशा पढ़ने के लिए प्रेरित करती है और लिखने के लिए खुला आसमान देती है। पर इन दिनों इस लॉक डाउन में हर रात खुली किताबें यूँ ही बिना पढ़े मेरी गॉड में पड़ी रह जाती हैं। और लिखने के लिए उठाई कलम सोच की गहरी वीथियों से गुजरते न जाने कब हाथ से फिसल जाती है। खाली पन्ने शब्दों को तरसते हैं और मैं उस बीती हुई सदी में अनदेखी उस पूर्वजा दादी का सुनसान बांचती हूँ।
सच कहूँ… अब इस मौन से घबराने लगी हूँ।
डॉ प्रिया सूफ़ी

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