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बुधवार, 1 सितंबर 2010

क्या ढूंढते हैं.....?


लोग मुझ में तेरी 
तस्वीर ढूंढते हैं...
देखो मैं क्या हूँ
मुझ में क्या ढूंढते हैं...?
बरसते बरसते 
बांसुरी बन गयी हूँ.... 
लोग मुझ में तेरी
तासीर ढूंढते हैं...!
देखो मैं क्या हूँ....
मुझ में क्या ढूंढते हैं.....?
होंठों तक आती तो
कुछ और गीत गाती
लोग मेरी रागिनी से 
तेरा पता पूछते हैं...
देखो मैं क्या हूँ....
मुझ में क्या ढूंढते हैं.....?
खुद को जलाया 
चरण-धूलि बनाया ...
अंगों लगाया..उमंगों सजाया....
लोग मेरी रज में  
तेरी रज़ा ढूंढते हैं...
देखो मैं क्या हूँ....
मुझ में क्या ढूंढते हैं.....?
बाँहों में आती
परस गुनगुनाती
तेरा लिखा कोई 
मिलन-गीत गाती
लेखनी में मेरी 
तेरा लिखा ढूंढते हैं...
देखो मैं क्या हूँ....
मुझ में क्या ढूंढते हैं.....?

कान्हा रे कान्हा.....


राधा पुकारे 
कान्हा रे कान्हा 
सुनो जरा 
एकांत तो आना 
मन की नदी में 
तरंगे जगाना 
तन की धूप में 
जरा सुस्ताना 
बाँहों में भर के
बांसुरी बजाना 
गीता बना कर 
होंठों लगाना 
कहना है तुम से 
कुछ नया कुछ पुराना 
कान्हा रे कान्हा...
एकांत तो आना...!!!
करते हो क्या तुम
वहां पर अकेले...?
युग- निर्माण 
युद्ध के झमेले 
कहीं बाहुबल
कहीं छल -रीति
प्रीति पर भारी पड़ी
राजनीति... 
अब क्या मैं बोलूँ...
जरा मुस्कुराना...
संध्या समय बस 
बांसुरिया बजाना...
कुछ भी नही बस 
मन में समाना....
वही प्रेम बेलि
अंसुवन सींच जाना 
बहुत कुछ है तुम से 
कहना सुनाना
कान्हा रे कान्हा 
एकांत तो आना...!!!
  *****